मंगलवार, 3 नवंबर 2015



सीमांचल में विकासवाद पर हावी है जातिवाद

बिहार पर चुनावी रंग जब चढ़ना शुरु हुआ था तो लगता था कि एक बार फिर बिहार में विकास के मुद्दे पर चुनाव होगा। भाजपा ने बड़े जोर शोर से विकास का मुद्दा भी उठाया था लेकिन सब टांय टांय फिस हो गया। इस चुनाव में भी ये साबित हो गया कि बिहार में जातिवाद की जड़ें कितनी गहरी हैं। लालू यादव इस चुनाव को अगड़ों और पिछड़ों का चुनाव घोषित कर रहे हैं तो नीतीश कुमार भी आरक्षण का मुद्दा उठाकर पिछड़ों को लुभाने का प्रयास कर रहे हैं। नीतीश तो एक कदम आगे जाकर यह भी कह रहे हैं कि बिहार में सरकार बिहारी ही चलाएगा। यह पहला मौका है जब कोई भी पार्टी बाहरी और भीतरी को मुद्दा बना रहा है। दो चरण का चुनाव बीत जाने के बाद स्पष्ट लगने लगा है कि जातियता विकास पर हावी होती जा रही है। इसका सबसे ज्यादा असर सीमाचंल में ही देखने के लिए मिलेगा क्योंकि यहां पर चुनाव आखिरी चरण में है।
 ये कटू सत्य है बिहार के लोगों को चाहिए विकास लेकिन चुनाव का नतीजा तय करती है जाति का कार्ड। बिहार के डीएनए में बस चुका जातिवाद सीमांचल में दम तोड़ता नजर आ रहा था। ध्रुवीकरण की प्रयोगशाला रह चुकी सीमांचल की आवोहवा इस बार बदली बदली सी दिखी थी। लेकिन जैसे जैसे पांच नवंबर नजदीक आ रहा है वैसे वैसे ये भी साफ होने लगा है कि लोगों की जरुरत विकास पर जातिगत समीकरण हावी है।
 सीमांचल में लोगों से बात करने पर पता चलता है कि अब विकास के बिना बात नहीं बनेगी। बिहार में 2005 और 2010 का चुनाव विकास के मुद्दे पर लड़ा गया। दोनों बार विकास के मुद्दे पर ही नीतीश कुमार को विजयश्री हाथ लगा। इस बार विकास के मुद्दे को पकड़ा है भाजपा गठबंधन ने। इस बात को इस तरह समझा जा सकता है कि जब तक भाजपा नीतीश जी के साथ थी विकास का मुद्दा भी उनके साथ था और जब भाजपा अगल हुई तो विकास का मुद्दा भी अलग हो गया। हालांकि लोग आज भी नीतीश के विकास को भूल नही पाए हैं। लेकिन आज लोग ये भी कह रहे हैं कि लालू यादव भी तो उनके साथ है। साथ ही दादरी और नेताओं के बयानबाजी ने चुनाव के रंग को बदल दिया है। कभी कभी तो ऐसा लगता है कि ये सब कुछ एक प्लानिंग के तहत हो रहा हो, क्योंकि ये सब लोगों को पता है कि जीत का आधार तो जातिवाद ही तय करेगा।
यहां के लोग ये भी मानते हैं कि विकास तो जरुरी है ही लेकिन राजनीति से जातिवाद को निकाल पाना भी इतना आसान नही है। जो लोग विकास की बात भी कर रहे है उनको भी कहीं न कहीं इस बात का एहसास भी है। यही कारण है कि टिकट के बंटवारे के समय इस बात का खास खयाल रखा गया है। कुछ दिनों पहले तक भाजपा को भी अगड़ों की पार्टी कही जाती थी। लेकिन आज भाजपा इस बात को जानती है लगभग 12 से 15 प्रतिशत वोट के सहारे सरकार नही बनाई जा सकती है। इसलिए जरुरी है कि दूसरी पार्टी के वोट बैंक में सेंध लगाई जाए। भाजपा को अपने धड़ों पासवान , कुश्वाहा और जीतन राम मांझी का वोट बैंक भी चाहिए, इसके आलावा भी महापिछड़ा वोट बैंक पर उसकी नजर है जिसकी संख्या 26 से 28 फीसद तक बताई जाती है। पूर्णिया , किशनगंज , अररिया और कटिहार के मुस्लिम वोटर किसी भ्रम में नहीं हैं। पूर्णिया के शेख शौकत अली कहते हैं कि हम तो विकास को ही वोट देंगे। हम ये नही देखेंगे कि विकास करने वाला किस जाति, धर्म या संप्रदाय का है। यहां पर लोग एमआईएम को भी तरजीत देते नजर नही आ रहे हैं। शौकत कहते हैं कि ओवैसी पहले अपने इलाके का विकास करें तब हमारे बारे में सोंचे। शुख्कीबाग कें अविनाश यादव कहते हैं कि कहने के लिए लोग विकास की बात करते हैं लेकिन उनके भीतर भी जातिवाद है। ऐसा नही होता तो लगभग 15 प्रतिशत यादव वोटरों के लिए करीब 89 उम्मदीवार क्यों हैं इसके साथ ही छह प्रतिशत कुशवाहा वोटरों के लगभग 20 उम्मीदवार क्यों है। प्रभात कालोनी के संजीवानंद कहते हैं कि सब बकवास है। सारी पार्टिया एक ही जैसी है। अच्छा उम्मीदवार न ही मिला तो नोटा दबाउंगा।

गुरुवार, 29 अक्तूबर 2015



सीमांचल के 24 सीटों पर 390 दावेदार

राजनीतिक तौर पर इस बार सीमांचल की धरती कुछ खास है। वो बस इस लिए नही कि यहां चुनाव आखिरी चरण में होना है। बल्कि इसलिए कि एनडीए गठबंधन और महागठबंधन की प्रतिष्ठा भी दांव पर लगी हुई है। दोनों के लिए सीमांचल किसी अग्नि परीक्षा से कम नही है। एक तरफ एनडीए पिछले लोक सभा चुनाव में देश भर में मोदी लहर के बावजूद मिली करारी हार से उबरना चाहता है तो दूसरी तरफ महागठबंधन लोकसभा में मिली जीत को दोहराना चाहत है। दोनों ही गठबंधनों को अपने लक्ष्य को पाने के लिए लोहे के चने चबाने होंगे। यही वजह है कि दानों गठबंधनों ने अपनी पूरी ताकत सीमांचल में झोंक दी है।
सीमांचल के चारों जिलों में कुल 24 सीटें हैं। जिसके लिए कुल 390 उम्मीदवार मैदान में हैं। सबसे अघिक भाजपा ने 18 सीटों पर प्रत्याशी उतारें हैं। उसके बाद कांग्रेस 10 और जदयू 9 सीटों पर अपनी किस्मत आजमा रहे हैं। कांग्रेस इन 10 सीटों के बहाने बिहार में बंजर हो चुकी अपनी राजनीतिक जमीन को फिर से उपजाउ बनाने की कोशिश कर रही है। यही कारण है कि राहुल गांधी पांच जन सभा कर रहे हैं। गुलामनबी आजाद भी लगातार सीमांचल में जमें हुए हैं। राजद ने भी पांच सीटों अपने प्रत्याशी उतारे हैं। इनके अलावा रालोसपा 2 सीटों पर, लोजपा और हम क्रमश: तीन और एक सीट पर चुनाव लड़ रही है। सबसे दिलचस्प बात ये है कि एआईएमआईएम के असदुद्दीन ओवैसी ने छह और पप्पू यादव ने अपने उम्मीदवारों को मैदान में उतार कर सीमांचल में मुकाबले को दिलचस्प बना दिया है। इस बार के मुकाबले में सीमांचल के चार मंत्रियों की प्रतिष्ठा दांव पर लगी है। पूर्णिया की धमदाहा सीट से मंत्री लेसी सिंह, रुपौली सीट से मंत्री बीमा भारती, कटिहार की बारसोई सीट से मंत्री दुलालचंद्र गोस्वामी और किशनगंज की ठाकुरगंज सीट से मंत्री नौशाद आलम शामिल हैं।
जैसे जैसे चुनाव के दिन यानी पांच नवंबर नजदीक आता जा रहा है हर चौक चौराहे और चाय की दुकान पर चुनावी चर्चा भी तेज होती जा रही है। इस बात  को सीमांचल की जनता भी समझती है कि चुनाव से लोगों की सस्याएं गायब हो गई हैं। कहीं पर भी दो सौ बीस रु किलो दाल की चर्चा नही हो रही है। अगर बात हो रही है तो ये कि मुसलमान और यादव वोटर के मन में क्या चल रहा है। स्पष्ट है कि विकासवाद पर जातिवाद हावी हो गया है। सज्जाद कालोनी के मोहम्मद इसराइल साहब की चिंता भी यही है कि यादव वोट बिखर क्यों रहा है। मुसलमान इस बार एक जुट हो रहे हैं कि नही। शेख सौकत अली कहते हैं कि आज भी चुनाव का रंग रुप बदला नही है। आज भी अंत अंत में जात पात की ही बात होने लगती है। लोगों की बातों से साफ लगता है कि मुसलमान और यादव वोटर पर ही सबकी निगाह टिकी हुई है। और तमाम पाटियों के उम्मीदवारों को देखने से लगता है कि इस बार किसी एक की हवा यहां पर नही चल रही है। न ही एक की दाल गलती नजर आ रही है। कहा जा जसका है कि इस बार मुकाबला दिलचस्प होगा। किसकी दाल गली ये तो वोट की गिनती के बाद ही पता चलेगा।