सीमांचल में विकासवाद पर हावी है जातिवाद
बिहार पर चुनावी रंग जब चढ़ना शुरु हुआ था तो लगता था कि एक बार फिर बिहार में विकास के मुद्दे पर चुनाव होगा। भाजपा ने बड़े जोर शोर से विकास का मुद्दा भी उठाया था लेकिन सब टांय टांय फिस हो गया। इस चुनाव में भी ये साबित हो गया कि बिहार में जातिवाद की जड़ें कितनी गहरी हैं। लालू यादव इस चुनाव को अगड़ों और पिछड़ों का चुनाव घोषित कर रहे हैं तो नीतीश कुमार भी आरक्षण का मुद्दा उठाकर पिछड़ों को लुभाने का प्रयास कर रहे हैं। नीतीश तो एक कदम आगे जाकर यह भी कह रहे हैं कि बिहार में सरकार बिहारी ही चलाएगा। यह पहला मौका है जब कोई भी पार्टी बाहरी और भीतरी को मुद्दा बना रहा है। दो चरण का चुनाव बीत जाने के बाद स्पष्ट लगने लगा है कि जातियता विकास पर हावी होती जा रही है। इसका सबसे ज्यादा असर सीमाचंल में ही देखने के लिए मिलेगा क्योंकि यहां पर चुनाव आखिरी चरण में है।
ये कटू सत्य है बिहार के लोगों को चाहिए विकास लेकिन चुनाव का नतीजा तय करती है जाति का कार्ड। बिहार के डीएनए में बस चुका जातिवाद सीमांचल में
दम तोड़ता नजर आ रहा था। ध्रुवीकरण की प्रयोगशाला रह चुकी सीमांचल की आवोहवा इस बार
बदली बदली सी दिखी थी। लेकिन जैसे जैसे पांच नवंबर नजदीक आ रहा है वैसे वैसे ये भी
साफ होने लगा है कि लोगों की जरुरत विकास पर जातिगत समीकरण हावी है।
सीमांचल में लोगों से बात
करने पर पता चलता है कि अब विकास के बिना बात नहीं बनेगी। बिहार में 2005 और 2010 का
चुनाव विकास के मुद्दे पर लड़ा गया। दोनों बार विकास के मुद्दे पर ही नीतीश कुमार को
विजयश्री हाथ लगा। इस बार विकास के मुद्दे को पकड़ा है भाजपा गठबंधन ने। इस बात को इस
तरह समझा जा सकता है कि जब तक भाजपा नीतीश जी के साथ थी विकास का मुद्दा भी उनके साथ
था और जब भाजपा अगल हुई तो विकास का मुद्दा भी अलग हो गया। हालांकि लोग आज भी नीतीश
के विकास को भूल नही पाए हैं। लेकिन आज लोग ये भी कह रहे हैं कि लालू यादव भी तो उनके
साथ है। साथ ही दादरी और नेताओं के बयानबाजी ने चुनाव के रंग को बदल दिया है। कभी कभी
तो ऐसा लगता है कि ये सब कुछ एक प्लानिंग के तहत हो रहा हो, क्योंकि ये सब लोगों को
पता है कि जीत का आधार तो जातिवाद ही तय करेगा।
यहां के लोग ये भी मानते हैं कि विकास तो जरुरी है ही लेकिन राजनीति
से जातिवाद को निकाल पाना भी इतना आसान नही है। जो लोग विकास की बात भी कर रहे है उनको
भी कहीं न कहीं इस बात का एहसास भी है। यही कारण है कि टिकट के बंटवारे के समय इस बात
का खास खयाल रखा गया है। कुछ दिनों पहले तक भाजपा को भी अगड़ों की पार्टी कही जाती थी।
लेकिन आज भाजपा इस बात को जानती है लगभग 12 से 15 प्रतिशत वोट के सहारे सरकार नही बनाई
जा सकती है। इसलिए जरुरी है कि दूसरी पार्टी के वोट बैंक में सेंध लगाई जाए। भाजपा
को अपने धड़ों पासवान , कुश्वाहा और जीतन राम मांझी का वोट बैंक भी चाहिए, इसके आलावा भी महापिछड़ा वोट बैंक पर उसकी नजर है जिसकी संख्या 26 से 28 फीसद तक बताई जाती है। पूर्णिया , किशनगंज , अररिया और कटिहार के मुस्लिम वोटर किसी भ्रम में नहीं हैं। पूर्णिया के शेख शौकत अली कहते हैं कि हम
तो विकास को ही वोट देंगे। हम ये नही देखेंगे कि विकास करने वाला किस जाति, धर्म या
संप्रदाय का है। यहां पर लोग एमआईएम को भी तरजीत देते नजर नही आ रहे हैं। शौकत कहते हैं कि ओवैसी पहले अपने
इलाके का विकास करें तब हमारे बारे में सोंचे। शुख्कीबाग कें अविनाश यादव कहते हैं
कि कहने के लिए लोग विकास की बात करते हैं लेकिन उनके भीतर भी जातिवाद है। ऐसा नही
होता तो लगभग 15 प्रतिशत यादव वोटरों के लिए करीब 89 उम्मदीवार क्यों हैं इसके साथ
ही छह प्रतिशत कुशवाहा वोटरों के लगभग 20 उम्मीदवार क्यों है। प्रभात कालोनी के संजीवानंद
कहते हैं कि सब बकवास है। सारी पार्टिया एक ही जैसी है। अच्छा उम्मीदवार न ही मिला
तो नोटा दबाउंगा।